हाइकु दिवस पर विशेष आलेख
आज हाइकु दिवस पर विशेष आलेख-
'भारत में हाइकु के जनक प्रो. सत्य भूषण वर्मा'
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डॉ. सत्य भूषण वर्मा भारत में हाइकु कविता के उन्नायक और दिशावाहक थे। देश में हाइकु कविता का जब भी संदर्भ आएगा, डॉ. वर्मा को अवश्य ही याद किया जाएगा। 4 दिसंबर, 1932 ई. को तत्कालीन भारत और आज के पाकिस्तान की रावलपिंडी में जन्मे वर्मा जी मूल रूप से हिंदी के प्राध्यापक थे और शांति निकेतन तथा जोधपुर विश्वविद्यालयों में हिंदी प्रवक्ता रह चुके थे। हिंदी के साथ-साथ वे संस्कृत, बंगला, उड़िया, असमिया, पंजाबी, उर्दू, चीनी, जापानी आदि भाषाओं के भी जानकार थे। जापानी भाषा उन्होंने वर्ष 1956 से ही सीखनी शुरू कर दी थी। 1974 ई. में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय आने पर हिंदी के स्वनामधन्य आलोचक तथा हाइकु को एक कविता ही नहीं, एक संस्कृति मानने वाले प्रो.नामवर सिंह की प्रेरणा से वे हाइकु के अध्ययन में प्रवृत्त हुए और फिर उन्होंने उन्हीं के निर्देशन में अपना महत्वपूर्ण शोध कार्य 'जापानी- हाइकु और आधुनिक हिंदी-कविता' भी वर्ष 1981 में पूरा किया। देश के प्रतिष्ठित उच्च शिक्षा संस्थान जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में जापानी भाषा के प्रथम अध्यापक के रूप में जापानी भाषा विभाग की स्थापना का श्रेय डॉ. वर्मा को ही जाता है। वे इस विभाग में प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष भी रहे। आगे चलकर यहीं, वे पूर्व-एशियाई भाषा विभाग के अध्यक्ष भी बनाए गए। उन्हें भारत में जापानी साहित्य का प्रथम प्रोफ़ेसर होने का गौरव भी प्राप्त था।
हाइकु कविता के संबंध में डॉ. वर्मा का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने जापानी भाषा एवं साहित्य का गहन अध्ययन करने के पश्चात पहली बार यह स्पष्ट किया कि हाइकु 5-7-5 के वर्ण क्रम में तीन पंक्तियों की 17 अक्षरी कविता है (आधे अक्षर इस गणना में सम्मिलित नहीं होते हैं)। उन्होंने यह भी कहा कि यद्यपि जापानी में हाइकु 5-7-5 सिलेबल के आधार पर लिखे जाते हैं, लेकिन भारतीय भाषाओं में सिलेबल का सबसे सटीक रूपांतरण वर्ण या अक्षर ही होगा। उनके माध्यम से ही भारत के रचनाकारों को यह पता चल पाया, कि 'हाइकु अनुभूति के चरम क्षण की अभिव्यक्ति की कविता है।' डॉ. वर्मा ने न केवल जापानी हाइकु कविताओं का हिंदी में अनुवाद किया, वरन हिंदी की कुछ हाइकु कविताओं का जापानी में भी अनुवाद किया। जापानी कविताओं का उनका अनुवाद 'जापानी कविताएँ' नामक पुस्तक के रूप में 1977 ई. में प्रकाशित किया जा चुका था। हाइकु पर केंद्रित उक्त दोनों पुस्तकें हाइकुकारों के बीच अत्यंत लोकप्रिय पुस्तकों के रूप में जानी गई। क्योंकि इनके आधार पर रचनाकारों ने अपने भीतर हाइकु की पहचान और परख करने की क्षमता विकसित की।
डॉ. सत्य भूषण वर्मा से पूर्व हम भारतीयों तक हाइकु की आधी-अधूरी जानकारी अंग्रेजी भाषा के माध्यम से पहुँचती थी। इसी प्रकार उन्होंने 'हाइकु' और उसकी प्रायः पैरोडी जैसी हल्के-फुल्के अंदाज़ वाली 17 अक्षरी अन्य कविता 'सेनर्यू' के भेद को भी समझाया। हाइकु प्रकृति-काव्य नहीं, अपितु प्रकृति के माध्यम से जीवन की कविता है। जापान के कई हाइकु-साधकों का जुड़ाव बौद्ध धर्म की महायान शाखा के जैन दर्शन से भी रहा है।
वर्ष 1978 ई. में डॉ.वर्मा द्वारा स्थापित 'भारतीय हाइकु क्लब' एक बहुआयामी और दूरगामी मंच साबित हुआ। इस क्लब के अधीन ही अंतर्देशीय पत्र पर प्रकाशित 'हाइकु' लघु पत्रक ने धीरे-धीरे समस्त भारतीय भाषाओं में हाइकु की पैठ को आसान कर दिया, क्योंकि इसमें हिंदी हाइकु कविताओं के साथ-साथ दूसरी भाषाओं के अनूदित हाइकु भी प्रकाशित होते थे। इसका ही परिणाम था कि देश में हाइकु-सृजन धीरे-धीरे आंदोलन बनता चला गया। आज भारत में हिंदी के साथ-साथ संस्कृत, असमिया, उड़िया, गुजराती, पंजाबी, मराठी, उर्दू, तमिल, कन्नड़, कोंकणी, तेलुगु, मलयालम, सिंधी, नेपाली आदि कितनी ही भारतीय भाषाओं में ही नहीं, बल्कि उनकी बोलियों-उपबोलियों तक में भी हाइकु लेखन का विस्तार हो चुका है। भोजपुरी, बुंदेली, बघेली, मालवी, राजस्थानी, अवधी, ब्रज भाषा, गढ़वाली, छत्तीसगढ़ी, संभलपुरी, मगही, सरगुजिया, निमाड़ी, डोगरी, कच्छी, कोशली, हल्बी, कश्मीरी आदि में भी बहुत अच्छे हाइकु लिखे गए हैं और लिखे जा रहे हैं।
डॉ. वर्मा की हाइकु संबंधी इसी सक्रियता का संज्ञान लेते हुए, उन्हें दस लाख येन के वर्ष 2002 के 'माशाओका शिकि अंतरराष्ट्रीय हाइकु पुरस्कार' से भी सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार पाने वाले वे पहले भारतीय बने। इतना ही नहीं, प्रो. सत्य भूषण वर्मा ने भारत और जापान के बीच एक सांस्कृतिक सेतु का भी कार्य किया। वे जापानी और हिंदी भाषाविद के रूप में जापान से भारत आने वाले या भारत से जापान जाने वाले प्रत्येक प्रतिनिधि मंडल के सक्रिय सदस्य हुआ करते थे। वर्मा जी की इस भूमिका के लिए उन्हें 28 नवंबर 1996 ई.को नई दिल्ली में जापान सम्राट की ओर से वहाँ के अत्यंत प्रतिष्ठित सम्मान 'दि ऑर्डर ऑफ द राइज़िंग सन, गोल्ड रेज़ विद रोसेट ' से सम्मानित किया गया था। यह सम्मान पाने वाले कदाचित वे पहले भारतीय थे।
प्रो. सत्य भूषण वर्मा ने केवल हाइकु कविताओं की रचना ही नहीं की, किंतु जापानी कविताओं के हिंदी अनुवाद, उनकी व्याख्याओं के माध्यम से तथा उनके संसार में भीतर गहरे तक उतरकर उन्होंने भारतीय हाइकु कवियों को हाइकु की आत्मा तक पहुँचाने में अपनी महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक भूमिका निभाई। इसके साथ ही उन्होंने भारत में हाइकु कविता पर लेख, टिप्पणियाँ, समीक्षाएँ व पुस्तकों की भूमिकाओं के लेखन द्वारा लगातार हाइकु की रचनाशीलता को निर्देशित किया तथा हाइकु की गति-प्रगति पर अपनी उदार, किंतु तटस्थ दृष्टि हमेशा बनाए रखी और उसके भटकाव के रास्तों पर भी दृढ़ता से खड़े दिखाई देते रहे। हाइकु कविता डॉ.सत्यभूषण वर्मा के लिए एक मिशन की तरह रही है। अपने इस मिशन को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने देश के दो महत्वपूर्ण हाइकु केन्द्रों- रायबरेली व होशंगाबाद की क्रमशः वर्ष-1991 व वर्ष- 2004 में ऐतिहासिक हाइकु-यात्राएँ की।
डॉ. सत्य भूषण वर्मा ने भारत में हाइकु कविता की जो नींव रखी, उस पर आज एक बड़ा प्रासाद खड़ा दिखाई देता है। अकेले खड़ी बोली हिंदी में ही एक हज़ार से ज्यादा हाइकुकार हाइकु लिख रहे हैं। देश में कदाचित हाइकु पहली ऐसी साहित्यिक विधा है, जिसने अपनी पैठ विभिन्न भारतीय भाषाओं के साथ-साथ बोलियों-उपबोलियों तक बनाने में सफलता प्राप्त की है। यह इस बात की तस्दीक करती है, कि 21वीं सदी में हाइकु का कितना बड़ा और व्यापक फलक उभर कर सामने आने वाला है। ऐसा पूर्व में कभी नहीं हुआ कि मात्र 17 अक्षरों की किसी साहित्यिक विधा के प्रति लोगों में इतना ज़बर्दस्त आकर्षण देखने को मिले।
अपने जीवन के उत्तरार्ध में डॉ. सत्य भूषण वर्मा जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एमेरिटस होने के साथ-साथ, विभिन्न राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से भी जुड़े थे; जिनमें सबसे महत्वपूर्ण था, जापान के रित्सुमेइकान एशिया-पेसिफिक अन्तरराष्ट्रीय विश्व विद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में उनका जुड़ाव।
जापान देश का उनके प्रति कितना गहरा सम्मान था, इसका उदाहरण 18 मार्च 2005 को आयोजित उस शोक सभा में देखने को मिलता है, जो उनके निधन के अवसर पर जापानियों की ओर से नई दिल्ली में आयोजित की गई थी। जापान के 'इंडियन कल्चरल स्टडी एसोसिएशन' द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में न केवल जापानी बौद्धों के तौर-तरीकों से प्रो.वर्मा को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की गई, बल्कि उनके व्यक्तित्व को भी उतनी ही आत्मीयता और गहराई से सराहा गया। कहना न होगा कि भारत में डॉ. सत्य भूषण वर्मा हाइकु के पर्याय के रूप में जाने जाते हैं। वे हाइकु को 'शब्दों की साधना' भी कहते थे। यही कारण है कि वर्ष 2005 में 13 जनवरी को नई दिल्ली में उनके आकस्मिक निधन के पश्चात, उनकी जन्मतिथि 4 दिसंबर को 'हाइकु दिवस' के रूप में याद किया जाता है। भारत में जब भी, जहाँ भी हाइकु की चर्चा होगी, प्रो० वर्मा का नाम इसके ध्वजावाहक के रूप में लिया जाता रहेगा।
संकलन: सरिता सुराणा
04.12.2021
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