हाइकु लेखन के नियम

 हाइकु लेखन के नियम


हाइकु को काव्य-विधा के रूप में प्रतिष्ठा प्रदान की मात्सुओ बाशो (१६४४-१६९४) ने। बाशो के हाथों सँवरकर हाइकु १७वीं शताब्दी में जीवन के दर्शन से अनुप्राणित होकर जापानी कविता की युग-धारा के रूप में प्रस्फुटित हुआ। आज हाइकु जापानी साहित्य की सीमाओं को लाँघकर विश्व-साहित्य की निधि बन चुका है।


हाइकु अनुभूति के चरम क्षण की कविता है। सौंदर्यानुभूति अथवा भावानुभूति के चरम क्षण की अवस्था में विचार, चिंतन और निष्कर्ष आदि प्रक्रियाओं का भेद मिट जाता है। यह अनुभूत क्षण प्रत्येक कला के लिए अनिवार्य है। अनुभूति का यह चरम क्षण प्रत्येक हाइकु कवि का लक्ष्य होता है। इस क्षण की जो अनुगूँज हमारी चेतना में उभरती है, उसे जिसने शब्दों में उतार दिया, वह एक सफल हाइकु की रचना में समर्थ हुआ। बाशो ने कहा है, "जिसने जीवन में तीन से पाँच हाइकु रच डाले, वह हाइकु कवि है। जिसने दस हाइकु की रचना कर डाली, वह महाकवि है।"


(प्रो. सत्यभूषण वर्मा, जापानी कविताएँ, पृष्ठ-२२)

हाइकु कविता को भारत में लाने का श्रेय कविवर रवींद्र नाथ ठाकुर को जाता है।

"भारतीय भाषाओं में रवींद्रनाथ ठाकुर ने जापान-यात्रा से लौटने के पश्चात १९१९ में 'जापानी-यात्री' में हाइकु की चर्चा करते हुए बंगला में दो कविताओं के अनुवाद प्रस्तुत किए। वे कविताएँ थीं -


पुरोनो पुकुर

ब्यांगेर लाफ

जलेर शब्द। तथा पचा डाल

एकटा को

शरत्काल।

दोनों अनुवाद शब्दिक हैं और बाशो की प्रसिद्ध कविताओं के हैं।"

(प्रो. सत्यनारायण वर्मा, जापानी कविताएँ, पृष्ठ-२९)


हाइकु कविता आज विश्व की अनेक भाषाओं में लिखी जा रही हैं तथा चर्चित हो रही हैं। प्रत्येक भाषा की अपनी सीमाएँ होती हैं, अपनी वर्ण व्यवस्था होती है और अपना छंद विधान होता है, इसी के अनुरूप उस भाषा के साहित्य की रचना होती है। हिंदी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। यह लिपि वैज्ञानिक लिपि है और (अपवाद को छोड़कर) जो कुछ लिखा जाता है वही पढ़ा जाता है। हाइकु के लिए हिंदी बहुत ही उपयुक्त भाषा है।


हाइकु सत्रह (१७) अक्षर में लिखी जाने वाली सबसे छोटी कविता है। इसमें तीन पंक्तियाँ रहती हैं। प्रथम पंक्ति में ५ अक्षर, दूसरी में ७ और तीसरी में ५ अक्षर रहते हैं। संयुक्त अक्षर को एक अक्षर गिना जाता है, जैसे 'सुगन्ध' में तीन अक्षर हैं - सु-१, ग-१, न्ध-१) तीनों वाक्य अलग-अलग होने चाहिए। अर्थात एक ही वाक्य को ५,७,५ के क्रम में तोड़कर नहीं लिखना है। बल्कि तीन पूर्ण पंक्तियाँ हों।


अनेक हाइकुकार एक ही वाक्य को ५-७-५ वर्ण क्रम में तोड़कर कुछ भी लिख देते हैं और उसे हाइकु कहने लगते हैं। यह सरासर ग़लत है, और हाइकु के नाम पर स्वयं को छलावे में रखना मात्र है। अनेक पत्रिकाएँ ऐसे हाइकुओं को प्रकाशित कर रही हैं। यह इसलिए कि इन पत्रिकाओं के संपादकों को हाइकु की समझ न होने के कारण ऐसा हो रहा है। इससे हाइकु कविता को तो हानि हो ही रही है साथ ही जो अच्छे हाइकु लिख सकते हैं, वे भी काफ़ी समय तक भ्रमित होते रहते हैं।


हाइकु कविता में ५-७-५ का अनुशासन तो रखना ही है, क्योंकि यह नियम शिथिल कर देने से छंद की दृष्टि से अराजकता की स्थिति आ जाएगी। कोई कुछ भी लिखेगा और उसे हाइकु कहने लगेगा। वैसे भी हिंदी में इतने छंद प्रचलित हैं, यदि ५-७-५ में नहीं लिख सकते तो फिर मुक्त छंद में अपनी बात कहिए, क्षणिका के रूप में कहिए उसे 'हाइकु' ही क्यों कहना चाहते हैं? अर्थात हिंदी हाइकु में ५-७-५ वर्ण का पालन होता रहना चाहिए यही हाइकु के हित में हैं।


अब लेखक ५-७-५ वर्ण के अनुशासन का पूरी तरह से पालन कर रहे हैं, परंतु मात्र ५-७-५ वर्णों में कुछ भी ऊल-जलूल कह देने को क्या हाइकु कहा जा सकता है? साहित्य की थोड़ी-सी भी समझ रखने वाला यह जानता है कि किसी भी विधा में लिखी गई कविता की पहली और अनिवार्य शर्त उसमें 'कविता' का होना है। यदि उसमें से कविता ग़ायब है और छंद पूरी तरह से सुरक्षित है तो भला वह छंद किस काम का?


जिन हाइकुकारों के हाइकु प्राय: चर्चा में रहते हैं उनमें प्रमुख हैं - डॉ. सुधा गुप्ता, डॉ. शैल रस्तोगी, कमलेश भट्ट 'कमल', पारस दासोत, डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव, डॉ. आदित्य प्रताप सिंह, डॉ. गोपाल बाबू शर्मा, डॉ. राजन जयपुरिया, डॉ. सुरेंद्र वर्मा, डॉ. जगदीश व्योम, नीलमेन्दु सागर, रामनिवास पंथी आदि हैं।


कुछ हाइकु जो काव्य की दृष्टि से अपने अंतस में बहुत कुछ समाहित किए हुए हैं, दृष्टव्य हैं। डॉ. सुधा गुप्ता हाइकु में पूरा दृश्य उपस्थित कर देती हैं -

माघ बेचारा

कोहरे की गठरी

उठाए फिरे। शैतान बच्ची

मौलसिरी के पेड़

चढ़ी है धूप। चिड़िया रानी

चार कनी बाजरा

दो घूँट पानी।

   

कमलेश भट्ट 'कमल' के हायकु पूरी तरह से खुलते हैं और अपना प्रभाव छोड़ते हैं-

फूल सी पली

ससुराल में बहू

फूस सी जली। कौन मानेगा

सबसे कठिन है

सरल होना।  

   

प्रकृति के किसी क्षण को देखकर उसका मानवीकरण डॉ. शैल रस्तोगी ने कितनी कुशलता से किया है -

कमर बंधी

मूँगे की करघनी

परी है उषा।

गौरैया ढूँढ़े

अपना नन्हा छौना

धूल ढिठौना।


मैया री मैया

पहुना मेघ आए

कहाँ बिठाऊँ? रूप निहारे

मुग्धा नायिका झील

चाँद कंदील।

   

निरंतर छीजती जा रही लोक संस्कृति और उजड़ते जा रहे ग्राम्य संस्कृति को लेकर भी हाइकुकार चिंतित हैं। डॉ. गोपालबाबू शर्मा के शब्दों में-

तपती छाँव

पनघट उदास

कहाँ वे गाँव? अब तो भूले

फाग, राग, कजरी

मल्हार, झूले।  

   

वर्तमान समय में धैर्य के साथ-साथ साहस की भी आवश्यकता है और एकाकीपन व्यक्ति को दार्शनिक चिंतन की ओर ले जाता है- इन भावों को व्यक्त करते हैं निम्नलिखित हाइकु

नभ की पर्त

चीर गई चिड़िया

देखा साहस। -मदनमोहन उपेंद्र


साँझ की बेला

पंछी ऋचा सुनाते

मैं हूँ अकेला! -रामेश्वर कांबोज 'हिमांशु'

- सरिता सुराणा

04.12.2021

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