सूत्रधार साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मंच द्वारा शिक्षक दिवस पर विशेष परिचर्चा कार्यक्रम का आयोजन

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'सूत्रधार' साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मंच ने मनाया शिक्षक दिवस, इन वक्ताओं ने दिया संदेश

4 Sep, 2020 20:51 IST|के. राजन्ना
'सूत्रधार' की संस्थापक सरिता सुराणा और अन्य सदस्य

ज्ञान सबसे शक्तिशाली हथियार होता है

शिक्षक विद्यार्थियों को इंसान बनाते हैं

शिक्षक छात्रों को जिम्मेदार नागरिक बनाते हैं

गुरु की महिमा अपरम्पार होती है

बालक की प्रथम शिक्षिका मां होती है

'सूत्रधार' साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मंच की ओर से शिक्षक दिवस के उपलक्ष्य में एक परिचर्चा का आयोजन किया गया, जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। परिचर्चा का शुभारंभ करते हुए संस्थापिका सरिता सुराणा ने कहा कि नेल्सन मंडेला ने कहा था कि 'ज्ञान वो सबसे शक्तिशाली हथियार है, जिससे आप पूरी दुनिया बदल सकते हैं।'
विद्यार्थी की प्रथम गुरु उसकी मां होती है और उसके बाद शिक्षक अपनी शिक्षा के द्वारा उसके जीवन को एक नई दिशा प्रदान करके उसे एक सुयोग्य और जिम्मेदार नागरिक बनाते हैं।

शिक्षक विद्यार्थियों को सुयोग्य और जिम्मेदार नागरिक बनाते हैं

सरिता ने आगे कहा कि मगर वर्तमान समय में न तो शिक्षक अपना दायित्व सही ढंग से निभा पा रहे हैं, कुछ अपवादों को छोड़कर और न ही छात्र शिक्षकों को वह सम्मान प्रदान कर रहे हैं, जिसके वे हकदार हैं। इसके पीछे कई कारक जिम्मेदार हैं। पहला तो ये कि शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है और दूसरा है शिक्षा का निजीकरण। इन दोनों ही स्थितियों में शिक्षा का उद्देश्य व्यापारिक हो गया है। ग्लोबलाइजेशन के दौर में शिक्षा भी ग्लोबल हो गई है और अभिभावकों की महत्वाकांक्षाएं बहुत बढ़ गई हैं। वे अपने बच्चों को सर्व गुण संपन्न बनाना चाहते हैं और इसके लिए मुंहमांगी कीमत देने के लिए तैयार हैं और उनके इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए शिक्षण संस्थान इसका भरपूर फायदा उठा रहे हैं।  

संस्थापक अध्यक्ष ने कहा कि यही वजह है कि आज शिक्षा सेक्टर सबसे ज्यादा फायदेमंद व्यापार बन गया है। लोग रियल एस्टेट और शेयर बाजार की तरह शिक्षण संस्थानों में पूंजी निवेश कर रहे हैं और दिन-दूना रात-चौगुना पैसा कमा रहे हैं। शिक्षा का पूरी तरह से बाजारीकरण हो गया है और वह क्रय-विक्रय की वस्तु बन गई है। इसे बाजार में निश्चित शुल्क (capitation fee) देकर खरीदा जा सकता है। यही कारण है कि आईआईटी, एमबीए, इंजीनियरिंग, एमबीबीएस और अन्य बड़ी डिग्रियां पाने के लिए इच्छुक विद्यार्थी शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश पाने के लिए लाखों रुपए रिश्वत दे रहे हैं।

उन्होंने कहा कि इन सबका परिणाम यह हो रहा है कि वे विद्यार्थी उस डिग्री को तो हासिल कर लेते हैं लेकिन उसके साथ उनके व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास नहीं हो पाता। वे जीवन के समरांगण में जूझने लायक हिम्मत और हौसला नहीं जुटा पाते, न ही उनका नैतिक और चारित्रिक विकास हो पाता है और इसीलिए शिक्षा समाप्ति के पश्चात अगर उन्हें मनमाफिक नौकरी नहीं मिलती है तो वे डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं और नशा करने लगते हैं।

साथ ही छोटा काम करने को अपनी तौहीन समझते हैं, इससे समाज में बेरोजगारी की समस्या बढ़ रही है। कहने का तात्पर्य यह है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली सस्ते क्लर्क तो तैयार कर सकती है लेकिन सभ्य, सुसंस्कृत और जिम्मेदार नागरिक नहीं। इसलिए इस विषय पर बहुत सोच विचार करने की आवश्यकता है तो आइए जानते हैं कि विद्यार्थियों के व्यक्तित्व विकास में शिक्षकों की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है?

शिक्षक विद्यार्थियों को इंसान बनाते हैं

सूत्रधार के सदस्य सुरेश चौधरी ने कहा कि वर्तमान समय में शिक्षक पूर्ववर्ती शिक्षकों की भांति विद्यार्थियों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकास में कितने सहायक हैं या वे अपनी भूमिका का सही तरीके से निर्वाह कर रहे हैं या नहीं? यह हमारे लिए एक यक्ष प्रश्न बनकर उभर रहा है।
न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः।
तत्त्वज्ञानात् परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
गुरु वंदना के ग्याहरवें श्लोक में कहा गया है कि गुरु से अधिक कोई तत्व नहीं, न ही कोई तप है, तत्वज्ञान से ऊपर कुछ नहीं, ऐसे तत्वज्ञान देने वाले गुरु को नमन। यहाँ तत्वज्ञान से अर्थ, जीवन मृत्यु के तत्व से तो है ही साथ ही उस तत्व से है जो तत्व हर विद्यार्थी के जीवन में आवश्यक है, जो हमारे संस्कार को निर्मित करता है। ऐसा कहा जाता है कि गुरु अर्थात् शिक्षक के बिना सही रास्तों पर नहीं चला जा सकता है। वह मार्गदर्शन करते हैं तभी तो शिक्षक छात्रों को अपने नियमों में बांधकर अच्छा     

उन्होंने कहा कि इंसान बनाते हैं और सही मार्ग प्रशस्त करते हैं। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि जन्म दाता से बढकर महत्व शिक्षक का होता है क्योंकि ज्ञान ही इंसान को व्यक्ति बनाता है, जीने योग्य जीवन देता है। पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार (बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक), “एक बच्चा जो आदमी का पिता होता है, उसके मन को ढालना उसके शिक्षक पर बहुत अधिक निर्भर करता है। यदि वह देशभक्त है और देश के लिए समर्पित है और अपनी जिम्मेदारियों को समझता है, तो वह देशभक्त पुरुषों और महिलाओं की एक जाति को पैदा कर सकता है जो धार्मिकता से ऊपर देश को और सामुदायिक लाभ से ऊपर राष्ट्रीय लाभ को रखेंगे।” जीवन में सफल होने के लिए शिक्षा सबसे ज्यादा जरुरी है।

चौधरी ने कहा कि शिक्षक देश के भविष्य और युवाओं के जीवन को बनाने और उसे आकार देने के लिये सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्राचीन काल से ही गुरुओं का हमारे जीवन में बड़ा योगदान रहा है। गुरुओं से प्राप्त ज्ञान और मार्गदर्शन से ही हम सफलता के शिखर तक पहुंच सकते हैं। पिता से ज्यादा माता नजदीक होती है इसलिए माँ की जिम्मेदारी शिशु पर अधिक होती है। अत: नारी समाज की शिक्षा दीक्षा नैतिकता पूर्ण होनी चाहिए, जिससे कि माँ अपने बच्चों को उचित शिक्षा प्रदान कर सके और हमारे धार्मिक ग्रंथों में ऐसे कई उदहारण मिलते हैं।

माता मदालसा, गोपीचंद की माता ,भक्त प्रह्लाद एवं ध्रुव की माताओं ने अपनी प्रतिभा एवं धर्मपूर्ण आचरण एवं ज्ञान की प्रेरणा से अपने पुत्रों को भवसागर से पार करा दिया। अतः बालक के जीवन में माता के सदृश गुरु या शिक्षक का हाथ होता है। अब हम स्वयं निर्णय लें सकते हैं कि आज कल गुरु कितना ध्यान रखते हैं बच्चों का, बस इन दो दोहों के साथ:
विद्या भूषण आज के, कोचिंग रहॆ चलाय।
भूल गये निज कर्म को, खूबहिं नोट कमाय।।

नहीं पितृ सम गुरु रहे,  कैसे नांवऊं माथ।
निज मन में श्रद्धा बिना, जुड़े कभी ना हाथ।।

विद्यार्थियों के व्यक्तित्व विकास में शिक्षकों की भूमिका

सदस्य ज्योति नारायण ने कहा कि शिक्षक और छात्र का संबंध कुम्हार और माटी जैसा संबंध है। हमेशा से शिष्य के प्रति गुरु का दायित्व प्रमुख रहता आया है। चाहे वह अतीत में रहा हो या वर्तमान में रहे और यह आवश्यक भी है। महर्षि अरविन्द जी ने कहा था कि 'किसी देश का वास्तविक निर्माता उस देश का शिक्षक होता है।' इसी से पता चलता है कि शिक्षक का कितना आदर और महत्त्व है। शिक्षा मात्र ज्ञान को सूचित कराना या बताना या डिग्री भर नहीं होता है, उसका उद्देश्य उतरदायी नागरिक का निर्माण करना होता है।

उन्होंने आगे कहा कि विद्यालय इसीलिए विद्या का मंदिर कहलाता है।यह ज्ञान सोच का केन्द्र, संस्कृति का तीर्थ एवं बौद्धिक स्वतंत्रता का संवाहक कहा और माना जाता है।
 स्वामी विवेकानंद जी का कहना था कि भारत में ऐसी शिक्षा व्यवस्थाएं होनी चाहिए जहां मन की शक्ति में वृद्धि, बुद्धि का विस्तार, मानसिक जागृति का विकास हो, साथ ही शारीरिक सौष्ठव, पवित्र चरित्र का निर्माण हो जिससे एक स्वस्थ समाज का निर्माण हो सके। जिसके पात्र हमारे विद्यार्थी हैं जो भावी देश  के नागरिक हैं। वर्तमान समय में आज भारतीय समाज में शिक्षक और छात्र का संबंध अत्यंत जटिल हो चुका है।

ज्योति ने शिक्षक आज सिर्फ पैसों के लिये पढ़ाता है, कक्षा में विषय व्याख्यान से शुरु होता है  और वहीं व्याख्यान पर खत्म होता है। छात्र भी सिर्फ डिग्री के लिये पढ़ता है, ऊंचा पैसा देता है,ऊँची डिग्री लेता है। छात्र जीवन को पूरा करना, सिर्फ पैसे कमाने के योग्य बनने का ध्येय रह गया है फिर ज्ञान कैसा ? वहां सिर्फ जानकारी प्राप्त करने के लिये ही वे शिक्षक के सम्पर्क में रहते हैं। गुरु और शिष्य की परंपरा तो प्राय: समाप्त ही हो गई है।

सदस्य ने कहा कि विद्यार्थियों में शालीनता नहीं रही। उनमें क्षिति जल पावक गगन समीरा का तत्वबोध नहीं है, देशभक्त बलिदानियों की अनुभूति नहीं है, अध्यात्म का पवित्र आभास नहीं है, माता पिता के देवत्त्व भूति की अनुभूति नहीं है, अपनी मातृभूमि से प्रेम नहीं है, परिशुद्ध प्रेम का आदर नहीं है तो फिर हम उन्नत राष्ट्र की कामना और कल्पना प्रेम, एकता और भाईचारे के साथ कैसे कर सकते हैं। आज पश्चिमी सभ्यता के आचरण की होड़ में युवा उसी पद्धति में ढलते जा रहे हैं, अपने सुदृढ़ संस्कार और संस्कृति की वास्तविकता को तो हम  खोते ही जा रहे हैं। आधुनिक होना अच्छी बात है, उच्च तकनीकी उद्योग का उन्वान होना भी अच्छी बात है लेकिन आदर्श विहीन शिक्षा पद्धति यानि कि सिर्फ  मैकाले की पद्धति अपना कर नहीं।

ज्योति नारायण ने कहा कि वर्तमान की शिक्षा पद्धति सिर्फ स्वार्थपूर्ति के लिये है न कि स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के लिये, इस सबके लिए उतरदायी कौन है? यह शिक्षकों का ही दायित्व एवं कर्तव्य है की वे मन, कर्म और वचन से विद्यार्थियों को सम्पूर्ण सजग नागरिक बनायें। कर्मठ, निष्ठावान, बौद्धिक, मानसिक, चरित्रवान भावी पीढ़ी अगर हमें तैयार करनी है तो शिक्षक पात्र को मूल्यवान उदारवादी, बुद्धिमान ,चरित्रवान के साथ सदभावी होना आवश्यक है। क्योंकि शिक्षक ही राष्ट्र निर्माता होता है। शिक्षक के गुणों में आत्मीयता, सहृदयता, मानवतावाद, संघर्षशीलता, परोपकारिता वृति, दायित्वों के प्रति सजगता, प्रवीणता, परिवर्तनवादिता, दक्षता, मार्गदर्शकता, संवेदनशीलता, विषय ज्ञान पर असाधारण प्रभुत्वता ये विशेषाताऐं शामिल होती है। शिक्षक होने का अधिकार उन्हीं को होता है जो सामान्य जन से अधिक बुद्धिमान और विनम्र हो।

गुरु की महिमा अपरम्पार

सुत्रधार के सदस्य नेहा सुराना भंडारी ने कहा-

'गुरु तेरी महिमा का वर्णन करुं मैं कैसे?
मेरी कृतज्ञता को काग़ज़ पर सजाऊँ,
या नीली स्याही से तेरे गुण गाऊँ,
अपनी नादानी पर मैं हंस पड़ी, कैसे सूरज को दीप दिखाऊँ,
वो चन्द शब्द कैसे तेरा सार गाए,
आख़िर, मेरी कलम में भी तो तू ही समाए!’

भंडारी ने कहा कि विद्यार्थी के जीवन में शिक्षक की भूमिका का वर्णन करना उतना ही कठिन है जितना एक पौधे को बिना जल के सींचना।छात्र एक गीली मिट्टी के समान है,
जिसे शिक्षक अपनि विध्या, संयम एवं प्रेम से एक सुंदर मूरत में घड़ता है। अपने अध्येता की उपलब्धियों को देख गर्वित होता है, तो कभी उसकी नादानी पर
क्रोधित, पर कभी उसे बीच मँझधार में नहीं छोड़ता। शायद इसीलिए हमारे शास्त्रों में गुरु का दर्जा ईश्वर से ऊँचा दिया है।

उन्होंने कहा कि एक अध्यापक हमारे जीवन में विकास की प्रारम्भिक अवस्था से हमारे परिपक्व होने तक बहुत अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वह ज्ञान का सागर ही नहीं अपितु हमारी ज़िम्मेदारियों का अहसास भी कराता है।अतः एक सशक्त देश की मज़बूत नीव रखने में हमारे गुरु का अत्यंत योगदान होता है। गुरु शिष्य परम्परा जो प्राचीन काल से चली आ रही है, वह आज भी उतनी ही जीवंत और प्रभावशाली है। अतीत काल में जहां एक ओर एकलव्य जैसे विद्यार्थी थे जिनके लिए गुरु की आज्ञा ही सर्वोपरि थी और दूसरी तरफ़ चाणक्य जैसे आचार्य, जिनके द्वारा रचित अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र आज भी अद्वितीय है, वर्तमान काल में भी ऐसा शिष्टाचार देखने को मिलता है।

सुराना ने बताया कि आदरणीय सर्वपल्ली राधाकृष्णन जिनका जन्म दिवस ही शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है, उनकी प्रेरणा से पीढ़ी दर पीढ़ी लाभ प्राप्त कर रही है। ऐसे शिक्षकों को मेरा प्रणाम! जिनके लिए माँ सरस्वती ही सर्वप्रथम है, जो निस्स्वार्थ भाव से अपना धर्म निभाते है। हमारे देश में आज भी ऐसे कई गाँव और जगह है जहा आधुनिक शिक्षा का अभाव है, पर फिर भी एक छोटे से कमरे या छप्पर के नीचे बैठे बच्चे दिखायी देंगे,जो अपने नन्हे हाथों से स्लेट पर अपना नाम लिख रहे होंगे, यह सम्भव उन अध्यापकों की वजह से है जो अपने आराम की चिंता करे बिना, ज्ञान वितरण में रुचि रखते है। अन्यथा ऐसा क़तई सम्भव ना हो पाता।

उन्होंने कहा कि अन्त में, एक शिक्षक ही महत्ता, उन अभिलाषी विद्यार्थीयों की चमकती आँखो में देखी जा सकती है, जिनका सुनहरा भविष्य एक अध्यापक की डाट, स्नेह, अनुशासन और प्रोत्साहन से हो कर निखरा है। ऐसे गुरुओं को मेरा शत शत नमन।

बालक की सर्व प्रथम शिक्षिका तो उसकी मां होती है

सदस्य भावना मयूर पुरोहित ने कार्यक्रम में भाग लेते हुए कहा कि 'विद्यार्थियों के जीवन में शिक्षकों की भूमिका' अहम होती है। चाहे प्राचीन समय हो या अर्वाचीन। पहले तो उपनयन संस्कार करके बच्चों को गुरुकुल में भेज देते थे। तब दोनों ओर जिम्मेदारियां ज्यादा बढ़ जाती थीं। वर्तमान समय के संन्दर्भ में भी विद्यार्थियों के व्यक्तित्व में शिक्षकों की भूमिका कम नहीं हैं।

पुरोहित ने कहा कि मातृ देवो भव:, पितृ देवो भव:, आचार्य देवो भव: यह यथार्थ एवं सनातन सत्य है। कुछ अपवादों को छोड़कर अभी भी शिक्षक विद्यार्थियों के व्यक्तित्व विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भगवान ने शिक्षकों को विशेष प्रकार की मिट्टी से बनाया है। आज कल के जमाने में भी कोई शिक्षक अपने बच्चों से भी ज्यादा अपने विद्यार्थियों को ज्यादा महत्व देते हैं। ऐसे ही शिक्षकों को  विद्यार्थियों की ओर से एवं अन्य सर्व की ओर से दीपस्तंभ, माईल स्टोन, आदि उपाधियों से नवाजा जाता है।

उन्होंने कहा कि हम कोई भी प्रसिद्ध व्यक्ति का साक्षात्कार करेंगे तो वो लोग पहले अपनी असफलता के बारे में बतायेंगें फिर जिसने उसे सही राह बतायी हो, उसका उल्लेख करते हैं। बालक की सर्व प्रथम शिक्षिका तो उसकी माता ही होती है। एक माता सौ शिक्षकों के बराबर होती है। अभी भी स्कूल या कॉलेज जिसमें बच्चों को होस्टल में रह कर पढ़ना पड़ता है, वहां शिक्षकों को विद्यार्थियों के माता-पिता के जैसी अहम भूमिका निभानी पड़ती है। सभी जगहों पर अपवाद भी रहतें हैं। मैं अपवादों पर व्यर्थ चर्चा करना नहीं चाहती। शिक्षकों को पूजनीय, वंदनीय बनाती हैं।  

भावना मयूर ने कहा कि एक आदर्श शिक्षक को गरीब, पढ़ाई में कमजोर, होशियार, कुरूप-सुंदर सभी को एक समान नजर से देखना चाहिए। कोई विद्यार्थी को कुछ कठिनाई हो तो वह दूर करनी चाहिए। कमजोर विद्यार्थियों को सब के सामने अपमानित नहीं करना चाहिए। अभिभावकों को भी शिक्षकों के विरुद्ध बच्चों को नहीं चढ़ाना चाहिए। छोटी छोटी बातों के लिए शिक्षकों को फरियाद नहीं करनी चाहिए। विद्यार्थियों को भी शरारतों को छोड़कर जिम्मेदारी पूर्वक अभ्यास करना चाहिए। विद्यार्थी अवस्था जीवन में बार बार नहीं आती।

उन्होंने कहा कि विद्यार्थी जीवन जिंदगी का स्वर्णिम अवसर है। आज के संदर्भ में  शिक्षकों को भी अपने आप को अपने विषय के अनुरूप  ज्ञान से सुसज्जित रखना चाहिए। अभी के जमाने में  बच्चों को , स्कूल को फेन्सी  शिक्षक पसंद हैं। फिर भी फैशन के साथ शालीनता एवं गरिमा भी अनिवार्य है। अच्छे शिक्षकों का प्रभाव बच्चों की प्रतिभा पर उसके जीवनपर्यन्त रहता है।

सदस्य ने कहा कि विद्यार्थी अपने जीवन में कितने भी उच्चतम स्थान पर पहुंचते हैं, वो मन ही मन में अपने आदर्श शिक्षकों को याद करते ही रहते हैं। भारत में और पूरे विश्व में महापुरुषों को तैयार करने के लिए आदर्श शिक्षक सदैव तत्पर रहते हैं। मैं भी मेरे व्यक्तित्व का  विकास करने वाले मेरे आदर्श अच्छे शिक्षकों को अभी भी याद करती हूं। व्यक्तिगत संपर्क नहीं कर सकती पर मन ही मन शत- शत प्रणाम जरुर करती हूं।

- सरिता सुराणा

संस्थापिका

सूत्रधार साहित्यिक संस्था

हैदराबाद

04.09.2020

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