मुक्तक काव्य
मुक्तक
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मुक्तक काव्य या कविता का वह प्रकार है जिसमें प्रबन्धकीयता न हो। इसमें एक छन्द में कथित बात का दूसरे छन्द में कही गयी बात से कोई सम्बन्ध या तारतम्य होना आवश्यक नहीं है। कबीरदास जी एवं रहीम के दोहे; मीराबाई के पद्य आदि सब मुक्तक रचनाएं हैं। हिन्दी साहित्य के रीतिकाल में अधिकांश मुक्तक काव्यों की रचना हुई। मुक्तक शब्द का अर्थ है ‘अपने आप में सम्पूर्ण’ अथवा ‘अन्य निरपेक्ष वस्तु’ होना। अत: मुक्तक काव्य की वह विधा है जिसमें कथा का कोई पूर्वापर संबंध नहीं होता। प्रत्येक छंद अपने आप में पूर्णत: स्वतंत्र और सम्पूर्ण अर्थ देने वाला होता है। संस्कृत काव्य परम्परा में मुक्तक शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम आनंदवर्धन ने किया। ऐसा नहीं माना जा सकता कि काव्य की इस दिशा का ज्ञान उनसे पूर्व किसी को नहीं था। आचार्य दण्डी मुक्तक नाम से न सही पर अनिबद्ध काव्य के रूप में इससे परिचित थे।
‘अग्निपुराण’ में मुक्तक को परिभाषित करते हुए कहा गया कि "मुक्तकं श्लोक एवैकश्चमत्कारक्षम: सताम्”।
अर्थात चमत्कार की क्षमता रखने वाले एक ही श्लोक को मुक्तक कहते हैं। राजशेखर ने भी मुक्तक नाम से ही चर्चा की है।आनंदवर्धन ने रस को महत्त्व प्रदान करते हुए मुक्तक के संबंध में कहा कि ”तत्र मुक्तकेषु रसबन्धाभिनिवेशिन: कवे: तदाश्रयमौचित्यम्”।
अर्थात् मुक्तकों में रस का अभिनिवेश या प्रतिष्ठा ही उसके बन्ध की व्यवस्थापिका है और कवि द्वारा उसी का आश्रय लेना औचित्य है।
हेमचंद्राचार्य ने मुक्तक शब्द के स्थान पर मुक्तकादि शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने उसका लक्षण दण्डी की परम्परा में देते हुए कहा कि जो अनिबद्ध हों, वे मुक्तादि हैं। आधुनिक युग में हिन्दी के आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मुक्तक शब्द पर विचार किया, उनके अनुसार- मुक्तक में प्रबंध के समान रस की धारा नहीं रहती, जिसमें कथा-प्रसंग की परिस्थिति में अपने को भूला हुआ पाठक मग्न हो जाता है और हृदय में एक स्थायी प्रभाव ग्रहण करता है। इसमें तो रस के ऐसे छींटे पड़ते हैं, जिनमें हृदय-कलिका थोड़ी देर के लिए खिल उठती है। यदि प्रबंध एक विस्तृत वनस्थली है, तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है। इसमें उत्तरोत्तर दृश्यों द्वारा संगठित पूर्ण जीवन या उसके किसी पूर्ण अंग का प्रदर्शन नहीं होता, बल्कि एक रमणीय खण्ड-दृश्य इस प्रकार सहसा सामने ला दिया जाता है कि पाठक या श्रोता कुछ क्षणों के लिए मंत्रमुग्ध सा हो जाता है।इसके लिए कवि को मनोरम शब्दों का एक छोटा स्तवक कल्पित करके उन्हें अत्यंत संक्षिप्त और सशक्त भाषा में प्रदर्शित करना पड़ता है।
सारांशत: मुक्तक के लक्षण निम्न प्रकार हैं -
1. इसमें चार पद होते हैं।
2. चारों पदों के मात्राभार और लय (या बहर) समान होते हैं।
3. पहले, दूसरे और चौथे पद में रदीफ, काफिया अर्थात समतुकान्तता होता है जबकि तीसरा पद अनिवार्य रूप से अतुकान्त होता है।
४. कथ्य कुछ इस प्रकार होता है कि उसका केंद्र बिन्दु अंतिम दो पंक्तियों में रहता है, जिनके पूर्ण होते ही पाठक/श्रोता ’वाह’ करने पर बाध्य हो जाता है।
५. मुक्तक की कहन कुछ-कुछ ग़ज़ल के शेर जैसी होती है, इसे वक्रोक्ति , व्यंग्य या अंदाज़-ए-बयाँ के रूप में देख सकते हैं।
जैसे-
आज अवसर है दृग मिला लेंगे। 212 222 1222
प्यार को अपने आजमा लेंगे। 212 222 1222
कोरा कुरता है आज अपना भी
कोरी चूनर पे रंग डालेंगे।
-श्री चन्द्रसेन ’विराट’
किसी पत्थर में मूरत है कोई पत्थर की मूरत है 1222 1222 1222 1222
लो हमने देख ली दुनिया जो इतनी ख़ूबसूरत है 1222 1222 1222 1222
ज़माना अपनी समझे पर मुझे अपनी खबर ये है 1222 1222 1222 1222
तुम्हें मेरी जरूरत है मुझे तेरी जरूरत है 1222 1222 1222 1222
-कुमार विश्वास
संकलनकर्त्री
सरिता सुराणा
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