महाराष्ट्र में बीजेपी के सरकार गठन का रास्ता साफ

चौबे जी बनने चले थे छब्बे जी, मगर अफसोस दुबे जी भी ना रहे। महाराष्ट्र में शिवसेना ने कुर्सी के लिए जो ड्रामा इतने दिन तक जारी रखा, आज़ सवेरे-सवेरे उसका पटाक्षेप हो गया। देवेन्द्र फड़नवीस फिर से एक बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गए। वैसे भी बीजेपी के पास सबसे ज्यादा सीटें थीं। जनता ने बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को मिलाकर स्पष्ट बहुमत दिया था, लेकिन शिवसेना की मुख्यमंत्री पद की जिद ने इतना समय बर्बाद कर दिया। आखिरकार राष्ट्रपति शासन हट गया और एक नई सरकार के गठन का रास्ता साफ हो गया।
सस्पेंस, ड्रामा और क्लाइमेक्स
एक लम्बे इंतजार और सियासी दलों के नेताओं की शर्तिया बैठकों के दौर के बाद बनने वाली त्रिदलीय सरकार का सपना उस समय अधूरा रह गया, जब सुबह-सुबह बीजेपी के पूर्व सीएम देवेन्द्र फड़नवीस ने दोबारा मुख्यमंत्री पद की और एनसीपी के अजीत पवार ने उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। हालांकि एनसीपी के मुखिया शरद पवार का कहना है कि अजीत पवार ने उनसे सलाह लिए बिना बीजेपी के साथ गठबंधन किया है।
जहां शुक्रवार की रात तक महाराष्ट्र के इस राजनीतिक रण में बीजेपी का कोई सिपाही तक नज़र नहीं आ रहा था, वहीं शनिवार की सुबह पूरी की पूरी बटालियन मय कैप्टन मैदान पर छा गई। अब तक शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के बीच चल रहा इकतरफा घमासान बिना किसी नतीजे के समाप्त हो गया और बादशाह का ताज किसी और ने पहन लिया।
             महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी और शिवसेना ने मिलकर चुनाव लड़ा था। बीजेपी इस चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई थी। उसने 105 सीटों पर जीत हासिल की थी और शिवसेना ने 56 सीटों पर। दोनों को मिलाकर 161 का आंकड़ा बन रहा था, जबकि सरकार बनाने के लिए 146 सीटें ही जरूरी थी। लेकिन ऐन वक्त पर शिवसेना के तेवर बदल गए और वह अपना मुख्यमंत्री बनाने पर अड़ गई। बीजेपी ने उसकी इस मांग को ठुकरा दिया, जिसके बाद शिवसेना और बीजेपी का गठबंधन टूट गया। विधानसभा की समय-सीमा समाप्त होने पर राज्यपाल ने केन्द्र सरकार से राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की और राष्ट्रपति की सहमति के बाद महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया।
             शनिवार की सुबह बहुत से दैनिक अखबारों की हेडलाइन यही थी कि उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के अगले सीएम होंगे। लेकिन हुआ इसके एकदम विपरीत, जिसके बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था। यहां पर वो कहावत सही होती प्रतीत हो रही थी कि राजनीति में लम्बे समय तक कोई दोस्त या दुश्मन नहीं होता। खैर, जो हुआ वो अच्छा ही हुआ। अगर कोई भी दल राज्य में सरकार नहीं बनाता तो यह जनादेश का अपमान होता। फिर दो ही विकल्प बचते कि या तो राष्ट्रपति शासन जारी रखा जाता या फिर दुबारा चुनाव कराए जाते। दोनों ही स्थितियां राज्य के विकास के लिए घातक होती।
नया कानून बनाया जाए
         मगर इस राजनीतिक ड्रामेबाजी से एक बात तो स्पष्ट है कि जब चुनावों में किसी एक राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो ऐसी अप्रिय स्थिति बनती है। इसलिए भविष्य में ऐसा ड्रामा  फिर से न हो, इसके लिए एक कानून बनाया जाना चाहिए। जिसके तहत जो भी दल गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ें, उनके बीच लिखित रूप से यह तय होना चाहिए कि किसकी कितनी सीटें आने पर सरकार में उनका प्रतिनिधित्व क्या होगा और मुख्यमंत्री किस दल का होगा, ताकि बाद में किसी को एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने का मौका ना मिले। अन्यथा सभी अपनी-अपनी डफली और अपना-अपना राग अलापते रहेंगे और इन सबके बीच आम जनता पिसती रहेगी।
- सरिता सुराणा
वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखिका



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